शनिवार व्रत की विधि
ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान कर पीपल के वृक्ष पर जल अर्पण करें तथा सात बार परिक्रमा करें । शनि देव महाराज को काले तिल, काला वस्त्र, तेल, उड़द अत्यंत प्रिय हैं इसीलिए इन वस्तुओं आदि से पूजन करें । शनि देव के इन 10 नामों का उच्चारण करें- कोणस्थ, कृष्ण, पिप्पला, सौरि, यम, पिंगलो, रोद्रोतको, बभ्रु, मंद, शनैश्चर । इस व्रत में दिन में नमक नहीं खाया जाता । भगवान शिव शनिदेव के गुरु हैं अतः भगवान शिव की आराधना करें । हनुमान जी की पूजा करें । उनके सामने सरसों या तिल के तेल का दीपक जलाएं । शमी का पौधा अपने हाथों से लगाएं तथा उसका पूजन करें । शनिवार के व्रत में पूजा के बाद शनिदेव की कथा अवश्य सुनें और दिन भर उनका स्मरण करते रहें, तो शनिदेव बहुत जल्दी प्रसन्न होते हैं और कष्टों का शीघ्र निवारण करते हैं । सूर्यास्त के बाद व्रत कथा का पठन करें तत्पश्चात भोजन एक ही बार करें ।

नोट: वैसे तो शनिवार का व्रत कभी भी शुरू किया जा सकता है, लेकिन श्रावण मास में शनिवार का व्रत प्रारंभ करने का विशेष महत्व माना गया है।
शनिवार व्रत कथा
एक समय की बात है, सभी नवग्रहओं सूर्य देव, चंद्र देव, मंगल देव, बुध देव, बृहस्पति देव, शुक्र देव, शनि देव, राहु देव और केतु देव में विवाद छिड़ गया, कि उनमे सबसे बड़ा कौन है? सभी आपस में बहस करने लगे और स्वयं को सर्वश्रेष्ठ बताने लगे । जब बहस का कोई निर्णय ना हो पाया तो सब देवराज इंद्र के पास निर्णय कराने पहुंच गए । इंद्र देव इससे घबरा गये और इसका निर्णय को देने में अपनी असमर्थता जतायी । उन्होंने नवग्रहओं को बताया कि इस समय पृथ्वी पर उज्जैन नगरी का राजा विक्रमादित्य हैं, जो कि अति न्यायप्रिय हैं। वे ही इसका निर्णय कर सकते हैं ।
नवग्रहओं को देवराज की बात ठीक लगी और सभी एक साथ राजा विक्रमादित्य के पास उज्जैन नगरी पहुंचे, और अपना विवाद बताकर निर्णय करने के लिये कहा । राजा इस समस्या से अति चिंतित हो उठे, क्योंकि वे जानते थे, कि जिस किसी को भी छोटा बताया, वही कुपित हो उठेगा । परंतु राजा ने अपने को संभाला और एक उपाय सोचा । उन्होंने स्वर्ण, रजत, कांस्य, पीतल, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक और लौह से नौ सिंहासन बनवाये, और उन्हें इसी क्रम से रख दिये ।
राजा विक्रमादित्य ने नवग्रहओं से निवेदन किया, कि आप सभी अपने अपने सिंहासन पर स्थान ग्रहण करें । जो अंतिम सिंहासन पर बेठेगा, वही सबसे छोटा होगा । इस अनुसार लौह का सिंहासन सबसे बाद में होने के कारण शनिदेव सबसे बाद में बैठे, तो वही सबसे छोटे कहलाये । उन्होंने सोचा, कि राजा ने यह जान बूझ कर उनका अपमान किया है। उन्होंने कुपित हो कर राजा से कहा “ राजा ! क्या सोचकर तूने मेरा अपमान करना चाहा है । तू मुझे नहीं जानता, सूर्य एक राशि में एक महीना, चंद्रमा सवा दो दिन, मंगल डेड़ महीना, बृहस्पति तेरह महीने, व बुद्ध और शुक्र एक एक महीने विचरण करते हैं । परन्तु मैं ढाई से साढ़े सात साल तक रहता हुँ । बड़े बड़ों का मैंने विनाश किया है । अब तुम सावधान रहना ।” ऐसा कहकर कुपित होते हुए शनिदेव वहां से चले गये । अन्य देवता भी खुशी खुशी सभा से चले गये ।
कुछ समय बाद राजा की साढ़े साती आ गई । तब शनि देव घोड़ों के सौदागर बनकर उज्जैन नगरी आये। उनके पास कई बढ़िया घोड़े थे । राजा ने जब यह समाचार सुना तो अपने अश्वपाल को अच्छे घोड़े खरीदने की आज्ञा दी । उसने कई अच्छे घोड़े खरीदे व एक सर्वोत्तम घोड़े को राजा को सवारी हेतु दिया । राजा विक्रमादित्य ज्यों ही उस घोड़े पर बैठा, वह सरपट वन की ओर भागा, भीषण वन में राजा को पटककर वह अंतर्धान हो गया । राजा भीषण वन मे भूखा प्यासा भटकता रहा और जब उन्हें लगा की वे भटक गए हैं तो जोर जोर से चिल्लाने लगे । तब एक ग्वाला उनकी आवाज सुनकर उनके पास आया और उन्हें पानी पिलाया । राजा ने प्रसन्न हो कर उसे अपनी अंगूठी दी । वह ग्वाला राजा को नगर लेकर गया और जब उसने राजा से उसका नाम पुच तो राजा ने अपना नाम उज्जैन निवासी वीका बताया ।
नगर पहुँचने के बाद राजा ने एक सेठ की दूकान में जल एवं भोजन कर कुछ विश्राम भी किया । उस दिन सेठ की बड़ी बिक्री हुई । सेठ उसे भाग्यशाली मानकर अपने साथ घर ले गया । सेठ के घर पर राजा का बहुत आदर सत्कार हुआ । जहां राजा भोजन कर रहा था वहां उसने एक खूंटी पर देखा, कि एक नौलखा हार टंगा है, जिसे खूंटी निगल रही है । थोड़ी देर में पूरा हार खूंटी निगल गयी । सेठ ने आने पर देखा कि हार गायब है और समझा कि वीका ने ही उसे चुराया है । उसने वीका को कोतवाल के पास पकड़वा दिया । फिर उस राज्य के राजा ने भी उसे चोर समझ कर हाथ पैर काट कर चौरंगिया कर देने का आदेश दिया । विक्रमादित्य को चौरंगिया कर नगर के बाहर फिंकवा दिया गया ।
नगर के बाहर से एक तेली गुजर रहा था, जिसे वीका पर दया आ गयी, और उसने वीका को उसके यहाँ काम करने को बोल और बोल की वह उसे रहने की जगह और खाना देगा । वीका मान गया और तेली की गाडी़ में बैठ गया । वीका तेली के यहाँ अपनी जीभ से बैलों को हाँकता था । उस काल राजा की शनि दशा समाप्त हो गयी । वर्षा काल आने पर वह मल्हार गाने लगा। तब वह जिस नगर में था, वहां की राजकुमारी मनभावनी को वह इतना भाया, कि उसने मन ही मन प्रण कर लिया, कि वह उस राग गाने वाले से ही विवाह करेगी । उसने दासी को ढूंढने भेजा । दासी ने बताया कि गाना एक चौरंगिया गा रहा था । परन्तु राजकुमारी ने ठान लिया था और वह अनशन पर बैठ गयी, कि विवाह करेगी तो उसी से । उसे बहुतेरा समझाने पर भी जब वह ना मानी, तो राजा ने उस तेली को बुला भेजा, और विवाह की तैयारी करने को कहा । फिर वीका का विवाह राजकुमारी से हो गया ।
कुछ दिन बाद स्वप्न में शनिदेव ने राजा विक्रमादित्य से कहा: राजन, देखा तुमने मुझे छोटा बता कर कितना दुःख झेला है । तब राजा ने शनि देव से क्षमा मांगी, और प्रार्थना की, कि हे शनिदेव जैसा दुःख मुझे दिया है, किसी और को ना दें । शनिदेव मान गये, और कहा: जो मेरी कथा और व्रत कहेगा, उसे मेरी दशा में कोई दुःख ना होगा। जो नित्य मेरा ध्यान करेगा, और चींटियों को आटा डालेगा, उसके सारे मनोरथ पूर्ण होंगे। साथ ही राजा को हाथ पैर भी वापस दिये । प्रातः आंख खुलने पर राजकुमारी ने देखा, तो वह आश्चर्यचकित रह गयी । वीका ने उसे बताया, कि वह उज्जैन का राजा विक्रमादित्य है । सभी अत्यंत प्रसन्न हुए ।

सेठ ने जब सुना, तो वह पैरों पर गिर कर क्षमा मांगने लगा । राजा ने कहा, कि वह तो शनिदेव का कोप था । इसमें किसी का कोई दोष नहीं । सेठ ने फिर भी निवेदन किया, कि मुझे शांति तब ही मिलेगी जब आप मेरे घर चलकर भोजन करेंगे । सेठ ने अपने घर नाना प्रकार के व्यंजनों से राजा का सत्कार किया । साथ ही सबने देखा, कि जो खूंटी हार निगल गयी थी, वही अब उसे उगल रही थी । सेठ ने अनेक मोहरें देकर राजा का धन्यवाद किया, और अपनी कन्या श्रीकंवरी से पाणिग्रहण का निवेदन किया । राजा ने सहर्ष स्वीकार कर लिया ।
कुछ समय पश्चात राजा अपनी दोनों रानीयों मनभावनी और श्रीकंवरी को सभी उपाहार सहित लेकर उज्जैन नगरी वापस लौटे और वहाँ सीमा पर ही उनका भव्य स्वागत हुआ । सारे नगर में दीपमाला हुई व सबने खुशी मनाया । राजा ने घोषणा की , कि मैंने शनि देव को सबसे छोटा बताया था, जबकि असल में वही सर्वोपरि हैं । राजा विक्रमादित्य ने उज्जैन नगरी मे छिपरा नदी के तट पर नवग्रह मंदिर की स्थापना की और तबसे सारे राज्य में शनिदेव की पूजा और कथा नियमित होने लगी । सारी प्रजा ने बहुत समय खुशी और आनंद के साथ बीताया । जो कोई शनि देव की इस कथा को सुनता या पढ़ता है, उसके सारे दुःख दूर हो जाते हैं । व्रत के दिन इस कथा को अवश्य पढ़ना चाहिये ।