सनातन वैदिक शास्त्रों में समुद्र मंथन एक महत्वपूर्ण घटना है। समुद्र मंथन के पौराणिक घटना के कारण संहारकर्ता महादेव रक्षक बने और नीलकंठ के नाम से विख्यात हुए । समुद्र मंथन के कारण ही भगवान विष्णु ने कूर्म अवतार, धनवंतरी अवतार और मोहिनी अवतार लिया था ।
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समुद्र मंथन के पूर्व की घटना
सतयुग के प्रारंभ में, एक बार, महर्षि दुर्वासा ने देवेंद्र (इंद्र) को एक माला भेंट की थी जिसे इंद्र देव ने असुरों के साथ युद्ध जीतने के अहंकार में तिरस्कार के साथ फेंक दिया। जब महर्षि दुर्वासा ने यह देखा, तो वे क्रुद्ध हो उठे। उन्होंने कहा, ” देवेंद्र, आपने मेरे दिए हुए सम्मान के रूप में उपहार का अपमान किया है? यह अहंकार इसीलिए है क्योंकि तुम एक भगवान हो, जाओ मेरा श्राप है की तुम्हारे और सभी देवताओ के साथ हमेशा रहने वाले भाग्य, धन और स्वास्थ्य, नष्ट हो जायेगा।” श्राप के पश्चात देवताओं ने सबकुछ खो दिया।महर्षि दुर्वासा के शाप के तुरंत बाद, असुर राजा बलि ने देव लोक पर हमला किया। युद्ध में देवताओं की बुरी तरह से हार होनी लगी। देवेन्द्र ने स्थिति समझते हुए युद्ध के समाधान के लिए भगवान ब्रह्मा के पास गए। भगवान ब्रह्मा ने कहा, केवल भगवान विष्णु ही इसका समाधान बता सकते हैं तथा वे सब भगवान विष्णु के पास वैकुण्ठलोक गए। उन सभी ने प्रभु को अपनी समस्या बताई और उनसे उन्हें समाधान करने का अनुरोध किया। भगवन विष्णु ने सभी देवतागण से कहा, “अमृत ही एक उपाय है जो आपकी गौरव और महिमा को लौटाएगा, और जिससे आप असुरों पर सदा के लिए जीत हासिल करेंगे। अमृत आप सबको केवल समुद्र मंथन (दूध सागर का मंथन) द्वारा प्राप्त होगा । मैं आप सबका मार्गदर्शन करूंगा परन्तु यह मंथन इतना आसान कार्य । ” देवता उत्साहित हो गए और पूछा, “भगवान, कृपया हमारा मार्गदर्शन करें और बताएं कि हम समुद्र मंथन कैसे करेंगे ।” भगवान विष्णु ने कहा, “सबसे पहले, आपको मंधरा पर्वत की आवश्यकता है, जो मंथन में स्तम्भ की भांति काम करेगा। द्वित्य आप सब को नागों का राजा वासुकी सर्प को मंधरा पर्वत को रस्सी की भांति घूमाने हेतु प्रयोग करने के लिए मनाना होगा । लेकिन, समस्त देवतागण इस समुद्र मंथन को अकेले करने में असमर्थ होंगे और आपको असुरों की मदद लेनी होगी। असुरों को समझाना आसान नहीं होगा, लेकिन उन्हें बताएं कि आप अमृत उनसे साझा करेंगे, और उन्हें भी अमरता प्राप्त होगी ।” देवताओं ने चिंतित होकर कहा, “प्रभु,यदि वे अमरता प्राप्त कर लेंगे तो हमें जीने नहीं देंगे।” भगवान विष्णु ने मुस्कुराते हुए कहा, “मैं इसका ध्यान रखूंगा किंतु आप सभी शीघ्र जाकर सभी वयवस्थाऐ करें।”

सर्वप्रथम देवताओं ने असुरों को अमृत की बात कहकर मना लिया और भगवन विष्णु के कथनुसार देवतागण अपने द्वित्य लक्ष्य, मंधरा पर्वत को क्षीर सागर तक लाने के लिए प्रयासरत हो गए परन्तु सभी के सारे प्रयास विफल रहे। देवतागण विशाल मंधरा पर्वत हिला भी न पाए और इसके निवारण हेतु पुनः भगवान विष्णु के पास गए । तब, भगवान विष्णु ने अपने वाहन गरुड़ को कार्य संपन्न करने भेजा और गरुड़ ने अकेले ही पर्वत को ले जाकर क्षीर सागर के मध्य पंहुचा दिया। देवतागण अब नागराज वासुकी को समुद्र मंथन के कार्य को संपन्न करने में सहायता हेतु भगवान शिव के निवास स्थान कैलाश पर्वत पहुचें। नागराज वासुकी, देवतओं की सहायता हेतु मंधरा पर्वत को रस्सी की भांति घूमाने को तैयार हो गए। भगवान विष्णु के कथनुसार सभी आवश्यकता पूर्ण हो चुकी थी और जब ये सुचना देवतागणों ने भगवान विष्णु को दी तो उन्होंने वासुकी को पर्वत को लपेटने का और ब्रह्मा जी को पर्वत के ऊपर बैठने के लिए कहा। भगवान ने देवताओं और दैत्यों को वासुकी के क्रमशः मुख और पूंछ पकड़ने का आदेश दिया। अहंकारी असुरों ने सोचा कि सांप का केंद्रीय भाग सिर है और देवताओ को केंद्रीय भाग नहीं पूँछ पकड़ना चाहिए और उन्होंने विद्रोह करने का फैसला किया, और सिर के हिस्से को पकड़ने की हठ करने लगे । लेकिन, असुर अहंकार में ये बात भूल गए की सांप का खतरनाक स्थान उसका सिर होता है और वहीं जहर होता है। देवताओं ने असुरों की बात मानते हुए उन्हें सर पकड़ने दिया। तत्पश्चात क्षीर सागर मंथन शुरू हुआ, लेकिन मंधरा पर्वत हिला पाना आसान नहीं था, और हर कोई अपनी बल की सीमा पहुंच चूका था। क्षीर सागर के अंदर कोई आधार नहीं होने के कारण मंधरा पर्वत तैर रहा था और स्थिर नहीं हो पा रहा था। अस्थिर विशाल पर्वत के चारों ओर नागराज वासुकी लिपटे हए सहज नहीं हो पा रहे थे। असहजता के कारण वासुकी जहर उगलने लगे और कई असुरों की तत्काल मृत्यु हो गई। उसी असहजता से वासुकी की पर्वत पर पकड़ ढीली हो गई और पर्वत सागर में डूब गया। सभी भगवान विष्णु की ओर निराश भाव से देखने लगे। तब भगवान विष्णु ने कहा, “ठीक है। मैं इस समस्या का समाधान करूंगा। ” भगवान विष्णु ने अपना ‘कूर्म अवतार’ लेकर मंधरा पर्वत का निचला हिस्से से संतुलित करने के लिए उस पर्वत को अपने ऊपर उठा लिया। तत्पश्चात, सभी देवतागण और असुर के लिए मंथन बहुत सरल हो गया ।

भगवान शिव नीलकंठ कैसे बने?
सर्वप्रथम समुद्र मंथन से बहुत घातक हलाहल विष की उत्पत्ति हुयी । विष की तीव्रता से सभी मूर्छित होने लगे और फिर सभी ने मदद के लिए भगवान विष्णु की ओर देखा। तब भगवान विष्णु ने कहा, “इस बार, मै आपसबकी कोई सहायता नहीं कर पाउँगा परन्तु इस जटिल परिस्थिति के निवारण हेतु आप सभी भगवान शिव से सहायता के लिए अनुरोध करें।” तत्काल सभी गण भगवान शिव के निवास कैलाश पर्वत पहुंचकर उनसे सहायता करने का अनुरोध करने लगे। भगवान शिव ने विष से विश्व की सुरक्षा हेतु उस विष को स्वयं ग्रहण करने का सभी को आश्वासन दिया । प्रभु के आश्वासन से सभी बहुत प्रशन्न हो गए किन्तु उनकी अर्धांगिनी पार्वती जी निराश हो गईं। प्रभु ने स्थिति समझ पार्वती जी से कहा, “प्रिय! मुझे विश्व की रक्षा हेतु विष का समाधान करना ही होगा तथा इसका एक समाधान है की मै हलाहल विष ग्रहण करुं। आप संपूर्ण विश्व की माता हैं और अभी सम्पूर्ण विश्व संकट में है। विश्व की रक्षा तो हमारा कर्तव्य है और जब आपकी शक्ति मेरे साथ होगी तो मुझे कुछ नहीं होगा?” पार्वती जी किसी तरह मान गईं लेकिन महादेव के लिए अत्यंत चिंतित हो गईं। भगवान शिव ने शीघ्र ही मंथन में निकले हलाहल विष को ग्रहण कर लिया। लेकिन महादेव के लिए भी हलाहल बर्दाश्त कर पाना कठिन हो रहा था। तब शक्ति रूप में पार्वती जी ने विष को महादेव कंठ में ही स्थिर करके नीचे जाने से रोक दिया। हलाहल विष, कंठ में होने के कारण भगवान शिव का कंठ नीला हो गया और भगवान ‘नीलकंठ’ के नाम से विख्यात हुए। जब महादेव हलाहल विष पी रहे थे, तो विष की कुछ बूंदें नीचे गिरी थीं जिसे ग्रहण करने के बाद दुनिया के सभी तत्कालीन जहरीले जानवर जैसे सांप, वृश्चिक, इत्यादि जहरीले हुए थे।
हलाहल से मुक्ति के पश्चात देवताओं और असुरों ने बिना किसी कष्ट के क्षीर सागर का मंथन करना शुरू कर दिया। निम्नलिखित की समुद्र मंथन से उत्पत्ति हुयी:
- कामधेनु गाय: समुद्र मंथन से कामधेनु गाय बाहर आईं , जिसे ऋषि वशिष्ठ को प्रदान किया गया । कुछ समय पश्चात ऋषि वशिष्ठ ने कामधेनु गाय, भगवान परशुराम के पिता ऋषि जमादग्नि को दे दिया था।
- उच्छैहिरावस घोड़ा: सात सिर वाला उड़ने वाला घोड़ा उच्छैहिरावस जिसे असुरराज बलि ने लिया।
- ऐरावत हाथी: शक्तिशाली हाथी ऐरावत भी समुद्र मंथन से निकला था और देवराज इंद्र ने ऐरावत को अपना वाहन बनाया था।
- पारिजात वृक्ष: पारिजात विशाल वृक्ष बाहर आई। देवराज इंद्र ने उसे स्वर्गलोक के नंदनवन में स्थापित किया ।
- चंद्रमा: चन्द्रमा की उत्तपत्ति के कुछ समय पश्चात उन्होंने भगवन शिव की तपस्या की थी। भगवन शिव तपस्या से प्रसन्न होकर चन्द्रमा को मुकुट की तरह धारण किया था।
- शंख: शंख भगवान विष्णु ने ग्रहण किया।
- अप्सरास्यें: रंभा, उर्वसी, मेनका, तिलोत्तमा जैसी अप्सराओं की उत्पत्ति मंथन से हुयी और देवताओं ने उन्हें स्वर्ग लोक भेज दिया।
- सुरा देवी: सोमरस देने वाली सुरा देवी की उत्पत्ति मंथन से हुयी थी और उसे देवताओं ने ग्रहण कर स्वर्गलोक में रखा था। सुरा देवी पर अधिपत्य के कारण देवताओं को सुर कहा जाने लगा तथा बिना सुरा देवी के दैत्यों को असुर कहा जाने लगा।
- संजीवनी: संजीवनी की उत्पति भी मंथन से हुयी थी। भगवान शिव ने संजीविनी धारण किया और कुछ समय बाद, उन्होंने दैत्य गुरु शुक्राचार्य को संजीवनी दे दी थी ।
- लक्ष्मी देवी: लक्ष्मी देवी की उत्त्पत्ति समुद्र मंथन से हुयी थी। लक्ष्मी देवी का आगमन होते ही, सुर और असुर लक्ष्मी देवी के लिए लड़ने लगे। अंत में, भगवान ब्रह्मा ने लक्ष्मी देवी से भगवान विष्णु से शादी करने के लिए कहा। जिसे लक्ष्मी देवी ने हर्षता से स्वीकार किया तथा भगवान विष्णु ने भी लक्ष्मी देवी को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया।
- 11 रत्न
- धन्वंतरि: सबसे अंत में भगवान विष्णु के अवतार, चिकित्सा के देवता धन्वंतरि अमृत कलश के साथ क्षीर सागर से निकले।
अमृत के उत्त्पत्ति के साथ पुनः सुर और असुर में अमृत को शीघ्रातिशीघ्र ग्रहण करने के लिए युद्ध हो गया । इस युद्ध को देख भगवन विष्णु ने अपने वाहन गरुड़ को उस अमृत कलश के साथ आकाश में उड़ जाने का आदेश दिया ।

महाकुम्भ का आयोजन क्यों किया जाता है ?
भगवन विष्णु के वाहन गरुड़ जब उस अमृत कलश के साथ आकाश में उड़ने लगे तो इस घटनाक्रम में उस अमृत कलश से अमृत की कुछ बूंदें हरिद्वार, प्रयागराज, नासिक और उज्जैन में गिरी। इसी कारण प्रत्येक 12 वर्षों में हरिद्वार, प्रयागराज, नासिक और उज्जैन में महाकुंभ मेला का भव्य आयोजन होता है । माना जाता है की हरिद्वार, प्रयागराज, नासिक और उज्जैन में अमृत गिरा था, अगर महाकुंभ में कोई भी प्राणी यहाँ के पवित्र नदियों में स्नान करता है तो उनके सारे पाप दूर हो जाते हैं और वे मोक्ष प्राप्त करते हैं ।
भगवान विष्णु का मोहिनी अवतार
अमृत चले जाने के बाद भी सुर और असुर अमृत के लिए लड़ रहे थे। तब, भगवान विष्णु अपने मोहिनी रूप में अवतरित हुए । भगवन विष्णु का मोहिनी अवतार अत्यंत सम्मोहक था। मोहिनी अवतार में भगवान तेजस्वी और सुन्दर लड़की थे, जिनके समकक्ष पुरे ब्रह्माण्ड में कोई अन्य सुन्दर नहीं था। दुनिया का हर व्यक्ति उनकी ओर आकर्षित हो रहा था। भगवान विष्णु के मोहिनी अवतार से ही ‘मोह’ शब्द की उत्तपत्ति हुयी थी। मोहिनी अवतार ने सुरों और असुरों को मंत्रमुग्ध कर दिया था। तब, मोहिनी ने असुरों से कहा, “क्या आप मुझे पाना चाहते हो?” सभी असुरों ने हामी भरी। मोहिनी ने कहा “यदी आप मुझे पाना चाहते हैं तो कृपया धैर्य रखें। मैं इस अमृत को सभी के साथ समान रूप से साझा करूंगी। सबसे पहले, मैं इसका आधा हिस्सा देवों को दूंगा, और फिर शेष आधा अमृत और मैं तुम्हारी हो जाऊंगी।” मोहिनी असुरों को पूरी तरह अपने वश में कर चुकी थीं और अमृत को पूरी तरह से देवता को पिलाना आरम्भ कर दिया। सभी असुरों में एक असुर ने जब ऐसा होते देखा तो वह देवता के रूप में प्रच्छन्न होकर देवताओं के बीच अमृत पीने बैठ गया। जैसे ही उस असुर ने कुछ अमृतपान किया तो सूर्य देव और चन्द्र देव ने देवता के समान तेज न होने के कारण उस असुर को पहचान लिया। सूर्य देव और चन्द्र देव ने तुरंत इसकी सूचना भगवान विष्णु के मोहिनी रूप को दी। शीघ्र ही मोहिनी ने अपने दिव्य सुदर्शन चक्र से उस असुर का सिर काट दिया, लेकिन अमृत उस असुर के गले से नीचे उतर गया था और वह असुर नहीं मरा। सुदर्शन चक्र से काटे जाने के कारण असुर का सिर और शरीर अलग हो गए थे परन्तु दोनों जीवित ही रहे। उस दिन से, उस असुर के सिर को राहु और शरीर को केतु के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बाद में राहु केतु ग्रह बने और उन्हें नवग्रह में स्थान मिला । असुरराज बलि ने जब सम्पूर्ण घटनाक्रम देखा तो वे समझ गए कि उनके साथ धोखा हुआ है और उन्होंने देव के खिलाफ युद्ध शुरू कर दिया है। लेकिन, अमृत पीने के बाद देवतागण बहुत शक्तिशाली एवं अमर हो चुके थे। सुरों ने असुरों को युद्ध में बहुत ही आसानी से परास्त कर दिया।

आखिरकार, क्रोधित महर्षि दुर्वासा का देवराज इन्द्र को श्राप फलीभूत हुआ। समुद्र मंथन के कारण भगवान विष्णु के तीन अवतार: कूर्म अवतार, धन्वंतरी अवतार और मोहिनी अवतार हुए। लक्ष्मी देवी क्षीर सागर से इस दुनिया में आईं और भगवान विष्णु की अर्धांगिनी बनी। हलाहल पीने के बाद विनाशक महादेव रक्षक और नीलकंठ बन गए। इसलिए हम सनातन धर्म में कहते हैं, “जो होता है अच्छे के लिए होता है।”