भगवान परशुराम
चित्र: भगवान परशुराम

भगवान परशुराम कौन थे?

भगवान परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार हैं। वह एक शक्तिशाली ब्राह्मण योद्धा थे जिन्होंने पृथ्वी में क्रूर क्षत्रिय शासकों का 21 बार नाश कर दिया था । वे भृगु वंश के ब्राह्मण ऋषि जमदग्नि और उनकी पत्नी रेणुका की सबसे छोटी पाँचवीं संतान थीं। उनके माता-पिता ने उनका नाम ‘भार्गव राम’ रखा था।

भगवान परशुराम के अवतरण का कारण

भगवान विष्णु के वामन अवतार के बाद, असुर कम हो गए थे। केवल वही असुर जीवित रहे जो गुफाओं और जंगलों में शरणागत हो गए थे । जब असुरों की संख्या घटने लगी तो क्षत्रिय राजाओं की संख्या बढ़ गई। क्षत्रिय राजाऐं अपनी शक्ति के अहंकार के कारण अत्यंत क्रूर हो चले थे तब भगवान परशुराम ने सभी क्रूर क्षत्रियों को मारकर पृथ्वी पर संतुलन स्थपित किया था ।

भगवान परशुराम के गुरु कौन हैं?

भगवान शिव, भगवान परशुराम के गुरु हैं।

जब परशुराम किशोर हुए तो उनके पिता ने उनको अपने समस्त भाइयों के साथ गुरु की खोज में भेज दिया। उनके भाइयों को सरलता से उनके गुरु मिल गए, लेकिन वे अपने गुरु को ढूंढने में असमर्थ रहे। उनको अपने लिए ऐसे निपुण गुरु की खोज थी जो हर विद्या में सर्वश्रेष्ठ हो । उन्होंने अपने गुरु की खोज में भारतवर्ष के सभी राज्यों में भ्रमण कर चुके थे परन्तु कोई भी गुरु उनको उपयुक्त नहीं लगा ।

एक दिन भगवान परशुराम श्मशान के निकट विश्राम कर रहे थे तभी वहां उनसे एक व्यक्ति मिला। वह व्यक्ति उनके निकट आकर उनसे प्रश्न करने लगा की , “आप क्या खोज रहे हैं?” उन्होंने उनको अपनी गुरु की खोज के बारे में सब कुछ बताया। उस व्यक्ति ने उनसे फिर प्रश्न पूछा, “जिस व्यक्ति को जीवन में कुछ भी नहीं मिला वह उस वस्तु को मृत्यु में खोजेगा। जन्म में कुछ भी न पाकर आप मृत्यु में क्या पाएंगे? ” परशुराम जी ने उत्तर दिया, “हम जन्म का मूल मृत्यु में पाएंगे। मैं यहां एक गुरु को खोजने के लिए आया था और मैं चाहता हूं कि मुझे गुरु वह सिखाये जो मैं सीखना चाहता हूं। वह मुझे वह हासिल करने के लिए शिक्षित करें जो मैं चाहता हूं। ”

भगवान शिव ही वह व्यक्ति बनकर परशुराम जी  समक्ष आये  उनका उत्तर सुनकर वह अपने रूप में आ गए और कहा, “मैं आपका गुरु बनूंगा और आपको जो चाहिए वह सिखाऊंगा।” भगवान शिव ने उन्हें अपना शिष्य बनाया और उनको सभी युद्ध विद्याओं में अपने समतुल्य पारंगत कर दिया। उनकी शिक्षा समाप्त होने पर उन्हें भगवान शिव ने अपना धनुष और परशु दिया और उन्हें कहा की  “आप मेरे शिष्य हैं और मेरे परशु के धारक हैं, अबसे आपको परशुराम के नाम से जाना जायेगा ।” भगवान शिव ने उन्हें वरदान देते हुए कहा की  “आपको युगों युगों के अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाओं को फलित करना है और इसीलिए मैं आपको इच्छामृत्यु का वरदान दे रहा हूँ। आपकी मृत्यु तभी होगी जब आपकी इच्छा होगी। ” और वहां से अंतर्ध्यान हो गए।

भगवान परशुराम अपनी शिक्षा समाप्त कर अपने पिता के आश्रम लौट गए। एक बार, भगवान परशुराम की मां रेणुका देवी ने सभी बेटों को खाना पकाने के लिए लकड़ियाँ लाने का आदेश दिया। सभी जंगल में गए और लकड़ी इकट्ठा करने लगे। सभी अपनी क्षमता के अनुसार कुछ ही लकड़ियाँ ला पाए परन्तु परशुराम जी एक हाथ में बरगद का पेड़ को लेकर आ गए थे ।

क्यों परशुराम ने अपनी माता की हत्या कर दी थी ?

ऋषि जमदग्नि अपना नियमित अनुष्ठान करते थे जिसमें उपयोग किए जाने वाले पानी को हाल ही में बने मिट्टी के कलस में लाया जाता था। ऋषि की पत्नी रेणुका अपने हाथ से बने मिट्टी के कलस में पानी लाया करतीं थीं ।  एक दिन जब वह मिट्टी के कलस बना रही थी, तो उन्होंने गंधर्व को दिव्य महिलाओं के साथ स्नान करते देखा। उन्होंने अपनी एकाग्रता खो दी और मिट्टी के कलस को बलपूर्वक बनाकर उसमें पानी भरकर ऋषि के समक्ष ले गईं । वह बलपूर्वक बना कलस ऋषि जमदग्नि के समक्ष आते ही टूट गया और अनुष्ठान बाधित गयी ।

ऋषि जमदग्नि कई वर्षों से उस अनुष्ठान को कर रहे थे। जमदग्नि क्रोधित हो गए तथा अपनी ध्यानदृष्टि से अपनी  पत्नी के साथ घटित सारा वृतांत जान लिया । उन्होंने क्रोध में वहां उपस्थित अपने चार पुत्रों को उनकी माँ को मारने का आदेश दे दिया । किसी पुत्र ने उनका आदेश पालन नहीं किया और कहा “पिता जी! आपने हमें सिखाया है की एक औरत या माँ को मारना एक पाप है। हम ऐसा नहीं कर सकते। ”

ऋषि जमदग्नि अत्यधिक क्रोधित हो उठे तथा उन्होंने परशुराम  जी को बुलाकर कहा कि, “तुम्हारी माँ ने मेरी अनुष्ठान को बाधित किया है और तुम्हारे भाइयों ने मेरी आज्ञा की अवमानना की है। सभी को मार डालो। ” इससे पहले कि ऋषि जमदग्नि और कुछ कह पाते, भगवान परशुराम ने अपनी परशु के एक प्रहार से अपनी माँ को तथा अगले प्रहार से एकसाथ चारों भाइयों का वध कर दिया। यह देखते हुए कि जमदग्नि आश्चर्यचकित हो गए तथा उनका क्रोध जाते रहा। उन्होंने परशुराम जी से पूछा कि  “तुम्हारे भाइयों ने अपनी माँ को नहीं मारा क्योंकि किसी औरत या माँ को मारना अच्छा नहीं है। परन्तु तुमने मेरे शब्दों के पूरा होने से पहले ही उन्हें मार डाला। क्यों?” उन्होंने कहा, “मैंने अपने पिता के आदेश का वहन किया जो किसी भी मनुष्य के लिए प्राथमिक कर्त्तव्य होता है।” ऋषि जमदग्नि उनके उत्तर से अत्यंत प्रसन्न हो गए तथा उनसे कहा, “मै अत्यंत प्रसन्न हूँ भार्गव। अपनी कोई भी इच्छा वरदान में मांग लो।” परशुराम जी ने माँगा की  “कृपया मेरी माँ और मेरे भाइयों को आप जीवित कर दें।” ऋषि जमदग्नि ने ऐसा ही किया।

परशुराम ने अपनी माँ को बिना सोचे-समझे नहीं मारा था । वह जानते थे कि उनके पिता एक महान तपस्वी हैं और मृतकों को जीवन देने की क्षमता रखते हैं। इसलिए, उन्होंने अपने पिता के आदेश का पालन किया । उन्होंने अपने पिता के क्रोध को शांत करके अपनी माँ और सभी भाइयों को जीवित करवा दिया ।

भगवान परशुराम को अपने माता की हत्या करने का आदेश देते उनके पिता
चित्र: भगवान परशुराम को अपने माता की हत्या करने का आदेश देते उनके पिता

परशुराम कुंड के बारे में

अपनी मां के जीवित होने के पश्चात भी भगवान परशुराम का परशु उनके हाथ से अलग नहीं हो सका। यह उनके किये जघन्य अपराध का फलस्वरूप था। अपने पिता की सलाह पर अपने पापों का पश्चाताप करने के लिए वे लोहित नदी में स्नान करने गए। उनके नदी में स्नान करते ही उनका परशु उनके हाथों से अलग हो गया। लोहित नदी के तट पर, जिस कुंड में भगवान परशुराम को पापों से मुक्ती मिली थी वह कुंड, ‘परशुराम कुंड’ के नाम से विख्यात हुआ।

परशुराम कुंड कहाँ है?

परशुराम कुंड अरुणाचल प्रदेश के लोहित जिले में तेजू शहर से 21 किमी की दूरी पर स्थित है।

परशुराम कुंड कैसे पहुंचें

  • निकटतम हवाई अड्डा: तेजू हवाई अड्डा (अरुणाचल प्रदेश) और डिब्रूगढ़ हवाई अड्डा (असम)। तेजू हवाई अड्डे से परशुराम कुंड की दूरी 49 किमी और डिब्रूगढ़ हवाई अड्डे से परशुराम कुंड की दूरी 194 किमी है।
  • निकटतम रेलवे स्टेशन: परशुराम कुंड से 120 किमी दूर तिनसुकिया रेलवे स्टेशन है।
  • निकटतम बस स्टैंड: कुंड से 21 किमी दूर तेजू शहर में है।

परशुराम कुंड जाने का सबसे अच्छा समय

मकर सक्रांति और परशुराम जयंती के दौरान

भगवान परशुराम ने क्षत्रिय शासकों का 21 बार नाश क्यों किया था ?

भगवान विष्णु के वामन अवतार के बाद क्षत्रिय राजाओं की संख्या में अकस्मात वृद्धि हुई। उनकी संख्या बढ़ने के साथ उनकी शक्ति, अहंकार और क्रूरता भी बढ़ती गई। उस समय में, कार्तवीर्यार्जुन नाम का एक राजा था। उसके पास एक हज़ार भुजाओं का वरदान था, और यदि किसी ने उसकी भुजा काट दी, तो तुरंत दूसरी भुजा वापस बढ़ जाती इसीलिए उसे सहस्त्रबाहु भी कहा जाता है ।

एक बार जब वह अपनी सेना के साथ एक जंगल में यात्रा कर रहा था , तो उसने ऋषि जमदग्नि के आश्रम को देखा और व्यंग्यात्मक तरीके से कहा कि “यहाँ कोई कैसे रह सकता है? मुझे उस ऋषि पर दया आती है।”   ऋषि जमदग्नि ने यह सुना और कहा “क्षत्रिय! आपलोग बहुत भूखे  प्रतीत होते है। कृपया हमारे आतिथ्य को स्वीकार करें। ” कार्तवीर्यार्जुन ने कहा, “हम सौ लोग हैं। आप हमें भोजन कराने में सक्षम नहीं हैं ।  ऋषि जमदग्नि ने उत्तर दिया, “राजन सहस्त्रबाहु, कृपया आएँ हम एक हजार से अधिक लोगों को भोजन कराने में सक्षम हैं” उन्होंने सभी से आग्रह किया  कि वे आश्रम में स्नान कर भोजन के लिए बैठे। जमदग्नि की पत्नी रेणुका ने सभी अतिथियों के इच्छानुसार कुछ ही समय सबके लिए भोजन ले आईं ।

यह सब देखकर राजा काफी आश्चर्यचकित हुआ और उसने सोचा यह कैसे संभव है। वह जाँच करने के लिए अंदर गया और कामधेनु गाय को देखा (कामधेनु: काम का अर्थ है इच्छा, धेनु का अर्थ है देना)। कामधेनु गाय देख उसने ऋषि जमदग्नि से गाय को देने की बात कही परन्तु ऋषि ने जवाब दिया कि यह कामधेनु गाय समुद्र मंथन से उत्पन्न हुआ है और उन्हें उपहार स्वरूप मिला है । जमदग्नि ने कहा, “मैं आपको कामधेनु गाय नहीं दे सकता, परंतु यदि गाय को बुलाने से वह आपके पास चली आती है, तो आप इसे ले सकते हैं।” `उसने अपने सैनिकों को कामधेनु लाने के लिए भेजा, लेकिन वह उनके पास नहीं गयी । उसके पश्चात कार्तवीर्यार्जुन ने स्वयं ही कामधेनु गाय को अपने पास बुलाया परंतु कामधेनु गाय उसके पास भी नहीं गई । इस पर कार्तवीर्यार्जुन को क्रोध आ गया और उसने सोचा कि ऋषि वहाँ उपस्थित है इसलिए गाय नहीं आ रही है ।

कुछ दिनों के पश्चात जब ऋषि जमदग्नि ध्यान मग्न थे तब सहस्त्रबाहु कार्तवीर्यार्जुन ने धोखे से जमदग्नि की पीछे से हत्या कर दी। ऋषि को मारने के बाद, वह जबरदस्ती कामधेनु को अपने महल में ले गया। जब रेणुका देवी ने यह सब देखा, तो उन्होंने परशुराम को इक्कीस बार पुकारा। उन्होंने कहा कि “भार्गव, क्षत्रिय राजाऐं, राक्षसों की तुलना में अधिक बुरा व्यवहार कर रहे हैं। सभी को मार डालो।”

भगवान परशुराम क्रोधित होकर सहस्त्रबाहु कार्तवीर्यार्जुन के किले में गए । भगवान ने अपनी परशु उठाया और चिल्ला कर कहा, “यदि राजा बाहर निकल जाता है तो केवल वह ही मरेगा अन्यथा, राज्य में हर कोई मारा जाएगा। ” राजा ने सोचा कि एक ब्राह्मण क्या करेगा और अपने दस सैनिकों को उसे मारने के लिए भेजा।  एक क्षण के भीतर दसों सिर उसके पैरों पर आ गिरे। राजा ने अपनी पूरी सेना को बुलाया, और कहा, “जो व्यक्ति मुझे उस ब्राह्मण का सिर लाकर देगा, मैं उपहार के रूप में उसे सोने के लाखों सिक्के दूंगा। जब राजा ने उपहार की घोषणा की, तो हर कोई परशुराम को मारकर सिर के के बदले उपहार की लालसा में हजारों सैनिक उनसे लड़ने पंहुचा।

राजा किले के अंदर गया और अपने कमरे में बैठ गया। बाहर बहुत शोर हो रहा था । कुछ देर बाद अचानक बहुत सन्नाटा हो गया। राजा अचंभित होकर बाहर यह देखने के लिए गया कि क्या हुआ है । हजारों शवों के टुकड़े चारों तरफ फैले हुए थे। उसने परशुराम के हाथों में परशु देखी और देखा की वहाँ केवल और केवल परशुराम जी क्रोध में खड़े हैं ।

कार्तवीर्यार्जुन अपने क्रोध को नियंत्रित नहीं कर सका और भगवान परशुराम पर हमला करने के लिए बढ़ गया। परशुराम जी ने अपनी कुल्हाड़ी से वार कर सहस्त्रबाहु के हजारों भुजाएं काट दिए, परंतु सभी भुजाएं तुरंत वापस बढ़ गए। भुजाएं भले ही फिर से बढ़ गए हों  , लेकिन उसे दर्द महसूस हुआ। जब सहस्त्रबाहु दर्द से कराह रहा था, तो परशुराम ने उसका  सिर काटने के लिए  अपनी परशु से वार किया और उसका शीश जमीन पर जा गिरा । इस तरह उन्होंने सहस्त्रबाहु कार्तवीर्यार्जुन का वध कर दिया । बाद में, उन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी की भ्रमण कर प्रत्येक क्रूर क्षत्रिय का वध किया ।

कैसे त्रेता युग में भगवान परशुराम भगवान राम से मिले?

त्रेता युग में भगवान विष्णु पृथ्वी पर भगवान राम के रूप में अवतरित हुए । एक बार, भगवान राम और लक्ष्मण को ऋषि विश्वामित्र, मिथिला नरेश जनक की पुत्री सीता के स्वयंवर में ले गए । स्वयंवर जितने का कार्य भगवान शिव के धनुष पिनाक को उठा उसकी प्रत्यंचा बांधना था। धनुष पिनाक स्वयं महादेव द्वारा भगवान परशुराम को दिया गया था। कोई भी भगवान शिव के धनुष पिनाक को उठाने में सक्षम नहीं हुआ ।

राजा जनक चिंतित हो गए और कहा , “क्या कोई चुनौती पूरी करने के योग्य नहीं है?” यह सुनकर ऋषि विश्वामित्र ने भगवान राम को चुनौती पूरी करने का निर्देश दिया। भगवान राम ने ऋषि और राजा जनक को प्रणाम किया, राम जी ने महादेव के धनुष का अभिवादन कर उसे सहजता से धनुष को उठा लिया। जब भगवान राम ने धनुष की डोरी को बांधने की कोशिश की तो धनुष टूट गया। हर कोई स्तब्ध था, लेकिन भगवान राम ने स्वयंवर की शर्तें पूरी कर ली थीं और, भगवान राम और सीता का विवाह हो गया ।

भगवान परशुराम, सीता और राम के विवाह के बाद स्वयंवर में पहुंचे । जब उन्होंने धनुष को दो हिस्सों में टूटा हुआ देखा तो भगवान परशुराम बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने क्रोधित होकर पूछा कि धनुष किसने तोड़ा।  विष्णु के सातवें अवतार राम, जिन्होंने पहले ही परशुराम को पहचान लिया था, मुस्कुराए और कहा: “भगवान, धनुष मैंने तोड़ा है ।” भगवान परशुराम ने राम को क्रोध में नहीं पहचाना और उनसे क्रोधित हो गए। भगवान राम मुस्कुराए और विनम्रतापूर्वक कहा “भगवान, हम सूर्यवंशी हमेशा ब्राह्मण का सम्मान करते हैं और मैं माफी मांगता हूं अगर मेरे द्वारा कुछ भी अनिष्ठ हुआ है तो जो भी सजा आप मुझे देना चाहते हैं मैं उस के लिए तैयार हूं।“

सीता राम स्वयंवर में भगवान परशुराम
चित्र: सीता राम स्वयंवर में भगवान परशुराम 

तब भगवान परशुराम ने राम जी को कहा ” जैसे तुमने भगवन शिव का धनुष तोडा है वैसे भगवन विष्णु के धनुष को उठा कर दिखाओ ।” और उन्होंने राम जी को भगवान विष्णु का धनुष दे दिया जिसे उठाते हुए भगवान राम ने अपने विराट विष्णु रूप का उनको दर्शन करवा दिए। तत्पश्चात परशुराम जी ने भगवान राम का अभिवादन किया और अपने सभी हथियार उन्हें सौंप दिए। उन्होंने अपने योद्धा जीवन से संन्यास ले लिया और ध्यान के लिए महेंद्र पर्वत चले गए।

भगवान परशुराम का द्वापर युग में योगदान

परशुराम भीष्मा, द्रोणाचार्य, और कर्ण के गुरु थे

द्वापर युग में, भगवान परशुराम ऋषि भारद्वाज के पुत्र द्रोण के गुरु बने, जो बाद में जा के पांडवों और कौरवों के गुरु बने और गुरु द्रोणाचार्य के रूप में प्रसिद्ध हुए।

भगवान परशुराम ने गंगा के पुत्र देव व्रत (जो भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए )को भी अपने शिष्य बनाकर विद्या प्रदान की । उन्होंने भीष्म को सब कुछ सिखाया और उन्हें एक शक्तिशाली योद्धा बनाया।

भगवान परशुराम सूर्यपुत्र कर्ण के भी गुरु बने। उन्होंने कर्ण को सारी विद्याएं सिखायी और उन्हें अर्जुन के समकक्ष एक शानदार धनुर्धर बनाया।

परशुराम ने कर्ण को शाप दिया

भगवान परशुराम की  सिखाने की यह शर्त थी कि उनका शिष्य एक ब्राह्मण होना चाहिए और कर्ण ब्राह्मण नहीं थे । कर्ण ने परशुराम से झूठ बोला की वह एक ब्राह्मण है और उनके शिष्य बन गए ।

एक दिन परशुराम जी थक कर कर्ण की गोद में ही सो गए। कुछ समय बाद, एक बिच्छू कर्ण की जाँघ काटने लगा , लेकिन वह सभी दर्द सहन कर गए और अपनी गोद नहीं हिलायी जिससे गुरु की नींद में कोई बाधा  न उत्पन्न हो सके । कर्ण का रक्त बहने लगा और परशुराम जी के चेहरे पर स्पर्श होने लगा। परशुराम जी अपने चेहरे पर रक्त महसूस किया और उनकी निंद्रा खुल गयी ।

परशुराम जी ने कर्ण से कहा तुमने अपना पैर क्यों नहीं हटाया तो कर्ण ने उत्तर दिया कि ” मैं आपकी निंद्रा बाधित नहीं करना चाहता था गुरुदेव ।”  भगवान परशुराम कर्ण की सहन शक्ति को देखकर अचंभित थे, इतना दर्द सहन करना एक ब्राह्मण के लिए असंभव था, और वह समझ गए कि कर्ण ब्राह्मण नहीं है। भगवान ने कर्ण से उसकी जाति के बारे में पूछा और कर्ण ने स्वीकार किया कि उसने झूठ बोला था। भगवान परशुराम क्रोधित हो गए और कर्ण को शाप दिया कि जब उसे शिक्षा की सबसे अधिक आवश्यकता होगी उस समय वह अपनी सभी शिक्षाओं को भूल जाएगा ।

भगवान का श्राप तब पूरा हुआ जब महाभारत युद्ध के दौरान, अर्जुन और कर्ण एक दूसरे के खिलाफ लड़ रहे थे। कर्ण भगवान परशुराम की सभी शिक्षाओं को भूल गए, और भगवान कृष्ण की दिशा निर्देष से अर्जुन ने उनका वध कर दिया था।

भगवान द्वारा शिक्षा प्राप्त करने के बाद ही, भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, और महारथी कर्ण ने महाभारत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी ।

कलयुग में भगवान परशुराम

महादेव शिव द्वारा दिए गए वरदान के कारण भगवान परशुराम अमर हैं। महादेव ने उन्हें इच्छामृत्यु का आशीर्वाद दिया है । और यह कहा जाता है कि कलयुग में भगवान परशुराम भगवान विष्णु के कल्कि अवतार के दौरान भी दर्शन देंगे ।

‘परशुराम जयंती’ कब मनाई जाती है?

परशुराम जयंती हर साल वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष की अक्षय तृतीया को मनाई जाती है। कभी-कभी तिथियां भिन्न हो सकती हैं।

भगवान परशुराम जयंती 2021

14 मई, 2021