आदि शंकरचार्य के बारे में
आदि शंकराचार्य ने मार्ग भटक चुके ‘सनातन धर्म’ की महिमा को पुनर्जीवित किया। उन्होंने एक दार्शनिक के रूप में समकालीन हिंदू धर्म के रीती-रिवाज तथा सोचने के तरीके को पुनः वेदों के सारांश के संस्कार के अनुसार प्रचारित किया, जिसे आज भी अनुसरण किया जाता है ।
कैसे सनातन धर्म की लोकप्रियता घटी
अनंत काल से चले आ रहे हिन्दू सनातन धर्म, का किसी समय अस्तित्व खतरे में पड़ गया था। नियमित रूप से चरमपंथी आक्रमणकारी भारतवर्ष देश पर हमला कर रहे थे। सनातन धर्म के प्रचारक पाश्चात्य से प्रेरित होकर भ्रष्ट होने लगे थे और गलत संस्कारों का प्रचार करने लगे थे। कुछ प्रचारक ‘बलि’ जैसी क्रूर विदेशी प्रथा को भी अपनाने लगे थे । संस्कृत भाषा में लिखे वेद ही हिंदू धर्म की नींव है और संस्कृत के बनिस्पद दैनिक बोली जाने वाली आसान भाषा लोकप्रिय होने लगी थी। आसान भाषा के निरंतर प्रयोग के कारण अब संस्कृत भाषा बुद्धिजीवियों के लिए भी कठिन हो गया था। बौद्ध और जैन धर्म अपने प्रारंभिक चरण में थे और अधिक सुलभ भाषाओं (प्राकृत और पाली) में लिखे गए दोनों धर्मों के शास्त्र अधिक लोकप्रिय हो रहे थे । अशोक और हर्षवर्धन जैसे हिंदू राजा सनातन धर्म के बजाय बौद्ध और जैन धर्म को स्वीकार कर लिया था जिस से सामान्य जन सहजता से स्वीकार करने लगे थे।
सनातन धर्म के पुनरुत्थान में आदि शंकराचार्य का योगदान
आदि शंकराचार्य ने 32 वर्ष का अल्प जीवन व्यतीत किया। हालांकि, वह बचपन से ही एक महान व्यक्तित्व थे, और उन्होंने सभी वेदों के सारांश को सभी के लिए प्रचारित किया। वे पहले आध्यात्मिक गुरु (आदि गुरु) के रूप में प्रसिद्ध हुए। उन्होंने सनातन दर्शन की शिक्षा देते हुए पूरे भारत की यात्रा की और अपनी तार्किक सोच और बहसों से लोकप्रियता हासिल की। भक्तों का दृढ़ विश्वास है कि, शंकराचार्य, भगवान शिव के अवतार थे।

जीवनी
शंकराचार्य का जन्म केरल में एरनाकुलम जिले के कलदी गाँव में नम्बूदिरी ब्राह्मण, आर्यम्बा और शिवा गुरु के घर हुआ था। यह किदवंती है कि आर्यम्बा और शिव गुरु ने वृषचला पहाड़ी पर भगवान शिव से प्रार्थना की थी और दिव्य पुत्र का आशीर्वाद प्राप्त किया था । आर्द्र नक्षत्र में ही भगवान शिव ने भी इस ब्रह्माण्ड में अपना साकार रूप लिया था और शंकराचार्य का जन्म भी वैशाख शुक्ल पंचमी के आर्द्र नक्षत्र में ही हुआ था। उनके जन्म के समय सूर्य, शनि, बृहस्पति और मंगल ग्रह की स्थिति चरम पर थी। कांची मठ के अनुसार, यह कहा जाता है कि शंकराचार्य का जन्म ईसा पूर्व 509 में हुआ था। हालाँकि, उनके जन्म का कोई उचित प्रमाण नहीं है।
शंकराचार्य जब बहुत छोटे थे तभी उनके पिता का निधन हो गया और उनकी माँ आर्यम्बा ने उनके पालन पोषण की जिम्मेदारी ले ली । शंकराचार्य एक त्वरित शिक्षार्थी थे। वे बालपन में ही संस्कृत और वेदों के ज्ञाता बन उसी आयु में वो हिंदू धर्म के प्रचारक भी बन गए ।
शंकराचार्य छोटे होते हुए भी भिक्षा मांगकर अपनी माँ की सहायता किया करते थे। एक बार, वे भिक्षा मांगने एक महिला के घर पहुंचे। वह महिला अत्यंत दरिद्र थी। उसके पास वस्त्र में केवल एक साड़ी थी और जब वह उस एक साड़ी को धोती थी तो उसे एक अन्य छोटे कपड़े के टुकड़े से अपना तन धक कर घर के अंदर बैठना पड़ता था। जब शंकराचार्य भिक्षा के लिए उसके पास आए थे तब वह महिला अपनी साड़ी धो कर उसके सूखने प्रतीक्षा कर थी। उस महिला का उस दिन व्रत था और साड़ी सूखने के पश्चात पूजा कर व्रत तोड़ने के लिए उसने अपने पास एक आंवला फल के अलावा कुछ भी नहीं था।
जब शंकराचार्य ने उस महिला से भिक्षा माँगा तो थोड़ा दरवाजा खोलकर उसके पास एकमात्र आंवले को भी दान कर दिया। उस महिला की गरीबी देख उनको बहुत दुःख हुआ और वे महिला के घर के सामने बैठकर देवी लक्ष्मी की प्रशंसा में ‘कनकधारा स्तोत्र’ की रचना कर उसे गाने लगे । देवी लक्ष्मी ने ‘कनकधारा स्तोत्र’ से अत्यंत प्रसन्न हो उस गरीब महिला को धन धान्य से परिपूर्ण कर दिया । तब से आज तक, देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए भक्त, ‘कनक धरा स्तोत्र’ का जाप करते हैं।
कनक धारा स्तोत्र
अंगहरे पुलकभूषण माश्रयन्ती
भृगांगनैव मुकुलाभरणं तमालम।
अंगीकृताखिल विभूतिरपांगलीला मांगल्यदास्तु मम मंगलदेवताया:।।1।।
मुग्ध्या मुहुर्विदधती वदनै मुरारै: प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि।
माला दृशोर्मधुकर विमहोत्पले या सा मै श्रियं दिशतु सागर सम्भवाया:।।2।।
विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षमानन्द हेतु रधिकं मधुविद्विषोपि।
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्द्धमिन्दोवरोदर सहोदरमिन्दिराय:।।3।।
आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दमानन्दकन्दम निमेषमनंगतन्त्रम्।
आकेकर स्थित कनी निकपक्ष्म नेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजंगरायांगनाया:।।4।।
बाह्यन्तरे मधुजित: श्रितकौस्तुभै या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति।
कामप्रदा भगवतो पि कटाक्षमाला कल्याण भावहतु मे कमलालयाया:।।5।।
कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभारेर्धाराधरे स्फुरति या तडिदंगनेव्।
मातु: समस्त जगतां महनीय मूर्तिभद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनाया:।।6।।
प्राप्तं पदं प्रथमत: किल यत्प्रभावान्मांगल्य भाजि: मधुमायनि मन्मथेन।
मध्यापतेत दिह मन्थर मीक्षणार्द्ध मन्दालसं च मकरालयकन्यकाया:।।7।।
दद्याद दयानुपवनो द्रविणाम्बुधाराम स्मिभकिंचन विहंग शिशौ विषण्ण।
दुष्कर्मधर्ममपनीय चिराय दूरं नारायण प्रणयिनी नयनाम्बुवाह:।।8।।
इष्टा विशिष्टमतयो पि यथा ययार्द्रदृष्टया त्रिविष्टपपदं सुलभं लभंते।
दृष्टि: प्रहूष्टकमलोदर दीप्ति रिष्टां पुष्टि कृषीष्ट मम पुष्कर विष्टराया:।।9।।
गीर्देवतैति गरुड़ध्वज भामिनीति शाकम्भरीति शशिशेखर वल्लभेति।
सृष्टि स्थिति प्रलय केलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रि भुवनैक गुरोस्तरूण्यै ।।10।।
श्रुत्यै नमोस्तु शुभकर्मफल प्रसूत्यै रत्यै नमोस्तु रमणीय गुणार्णवायै।
शक्तयै नमोस्तु शतपात्र निकेतानायै पुष्टयै नमोस्तु पुरूषोत्तम वल्लभायै।।11।।
नमोस्तु नालीक निभाननायै नमोस्तु दुग्धौदधि जन्म भूत्यै ।
नमोस्तु सोमामृत सोदरायै नमोस्तु नारायण वल्लभायै।।12।।
सम्पतकराणि सकलेन्द्रिय नन्दानि साम्राज्यदान विभवानि सरोरूहाक्षि।
त्व द्वंदनानि दुरिता हरणाद्यतानि मामेव मातर निशं कलयन्तु नान्यम्।।13।।
यत्कटाक्षसमुपासना विधि: सेवकस्य कलार्थ सम्पद:।
संतनोति वचनांगमानसंसत्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे।।14।।
सरसिजनिलये सरोज हस्ते धवलमांशुकगन्धमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम्।।15।।
दग्धिस्तिमि: कनकुंभमुखा व सृष्टिस्वर्वाहिनी विमलचारू जल प्लुतांगीम।
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष लोकाधिनाथ गृहिणी ममृताब्धिपुत्रीम्।।16।।
कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूरतरां गतैरपाड़ंगै:।
अवलोकय माम किंचनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयाया : ।।17।।
स्तुवन्ति ये स्तुतिभिर भूमिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्।
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते बुधभाविताया:।।18।।
एक दिन, जब शंकराचार्य की मां आर्यम्बा पूर्णा नदी से पानी ला रही थीं, तब वह बेहोश हो गईं। तब शंकराचार्य ने पूरण नदी की प्रार्थना की और उस नदी को अपने घर के बगल से प्रवाहित कर दिया था। अपनी श्रद्धा, भक्ति और शक्तिशाली मंत्रों से नदी की दिशा बदलने वाले छोटे शंकर की महिमा को देखकर हर कोई चकित रह गया।
शास्त्रों के अनुसार, आदि शंकराचार्य को भगवान ब्रह्मा द्वारा केवल आठ वर्ष का जीवनकाल दिया गया था। छोटे शंकराचार्य के आठ वर्ष की आयु तक पहुंचने से पहले ही उन्होंने कई धर्मार्थ कार्य किए गए थे। महान ऋषि अगस्त्य और अन्य ऋषियों ने, उनको कई और महान कार्य करने के लिए, जीवन के अतिरिक्त आठ साल आशीर्वाद में दिए।
आदि शंकराचार्य ने बहुत कम उम्र में अधिक ज्ञान अर्जित करके धर्म प्रचार का निर्णय किया और अपनी मां से अनुमति मांगी, लेकिन वह इसके लिए बिलकुल सहमत नहीं हुईं। बाद में, कुछ अप्रत्याशित घटनाओं के कारण, उन्होंने शंकर को भिक्षु बनने के निर्णय को स्वीकार कर लिया। तब उन्होंने अपनी माँ से कहा कि सर्वप्रथम वह एक गुरु की खोज में जायेंगे और उनसे वादा किया की जब भी वे उनको याद करेंगीं वह उनके समक्ष प्रस्तुत हो जायेंगे ।
गुरु की खोज में जब वह नर्मदा नदी के किनारे यात्रा कर रहे थे, तो उन्होंने एक गुफा देखी जिसमें गोविंदा भगवत्पद रुके थे। वह महान ऋषि गोविंदपाद के शिष्य थे, जो सुका के पुत्रों में से एक थे, जो व्यास के पुत्र थे। शंकर ने गोविंद भगवत्पाद को नमस्कार कर अपना शिष्य बनाने का आग्रह किया । छोटे शंकराचार्य के साथ एक छोटी सी बातचीत के बाद, गोविंदा भगवत्पद, छोटे शंकराचार्य की बुद्धिमत्ता से समझ गए कि भगवान शिव उनके रूप में स्वयं पृथ्वी पर आए हैं। उन्होंने उन्हें ब्रह्म ज्ञान, संपूर्ण उपनिषद और सभी चार वेदों की शिक्षा दी। शंकराचार्य ने अपनी शिक्षा शीघ्र ही पूरी कर ली। शिक्षा पूरी होने के बाद उन्होंने अपने गुरु की अनुमति ली और ब्रह्म सूत्र के सार लिखने के लिए काशी चले गए। जब वह काशी में निवास कर रहे थे तब सदानंद नामक एक स्नातक शंकराचार्य के पहले शिष्य बने । तत्पश्चात उनके उपदेश और बुद्धिमत्ता के कारण उनके अनगिनत शिष्य बनते गए।
एक दिन जब शंकराचार्य अपने शिष्यों के साथ गंगा नदी की ओर जा रहे थे तब उनके रास्ते को एक सफाईकर्मी ने रोक दिया। शंकराचार्य के शिष्यों ने उसे हटने के लिए कहा, तो उस सफाईकर्मी ने दो प्रश्न पूछे:

आदि शंकर ने जैसे ही उन प्रश्नों को सुना तो वह समझ गए की वह सफाईकर्मी और कोई नहीं बल्कि स्वयं भगवान शिव हैं। उन्होंने ‘मनीषा पंचकम्’ की रचना कर भगवान शिव के प्रश्नों के उत्तर दिये, ‘मनीषा पंचकम्’ पाँच स्लोकों का एक संग्रह है।
मनीषा पंचकम्


भगवान शिव ‘मनीषा पंचकम्’ से अत्यंत प्रसन्न हुए और शंकराचार्य से कहा, “ आपका अगला कार्य, चार वेदों से जुड़े तथा वेद व्यास द्वारा संकलित ब्रह्मसूत्रों को भास्य लिखना है। ब्रह्म सूत्र के मूल अर्थ को नासमझ गलत अर्थों को निकला जाता है इसीलिए आपको सरल भाषा में ब्रह्म सूत्र के मूल अर्थ वाले भाष्य की रचना करनी होगी । तत्पश्चात, आपको अपने शिष्यों के माध्यम से भाष्य के सभी सिद्धांतों का प्रचार करना होगा । इस काम को पूर्ण करने के पश्चात आप मुझ तक पहुंच जायेंगे।” इतना कहकर भगवन शिव अंतर्ध्यान हो गए । महादेव की आज्ञा का पालन करते हुए शंकराचार्य ने काशी में ही ब्रह्म सूत्रों के साथ भागवत गीता और उपनिषदों के भाष्यों को लिखा ।
एक दिन काशी में आदि शंकर गंगा नदी के तट पर खड़े थे। तभी, ऋषि व्यास एक वृद्ध ब्राह्मण के रूप में वहां आए और शंकर द्वारा लिखे गए भाष्यों पर चर्चा करने लगे। उन दोनों ने आठ दिनों तक चर्चा जारी रखी। शंकराचार्य समझ गए की वह वृद्ध ब्राह्मण कोई साधारण ब्राह्मण नहीं बल्कि स्वयं व्यास है। उन्हें यह ज्ञात होते ही उन्होंने व्यास जी को प्रणाम किया और उनसे पूछा कि “क्या वह उनके द्वारा लिखे गए भाष्य से संतुष्ट हैं?” व्यास ने प्रसन्नता व्यक्त की और यह कहते हुए सराहना की कि यह केवल शंकराचार्य हैं जिन्होंने ब्रह्म सूत्रों का वास्तविक अर्थ समझकर उसको सरल भाषा में लिखा है ।
ऋषि व्यास ने जब वहां से प्रस्थान की बात कही तो शंकराचार्य ने उनसे प्रार्थना करते हुए कहा की अब भगवान शिव के बताये हुए कार्य संपन्न हो चुके हैं और वो नश्वर शरीर से मुक्ती चाहते हैं । ऋषि ने उनसे कहा कि “तुम्हारा जीवन इतनी जल्दी खत्म नहीं हो सकता शंकर। तुम्हे अभी बुरे लोगों से लड़ना होगा और अपने मार्ग से भटक चुके धर्म को सही मार्ग पर लाना होगा ।” ऐसा कहते हुए, उन्होंने शंकराचार्य को धर्म की स्थापना करने का आदेश दिया और उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा, “मैं आपको भगवान शिव के आशीर्वाद के साथ जीवन के अतिरिक्त 16 साल दे रहा हूं। ” और अंतर्ध्यान हो गए ।
शंकराचार्य अपने शिष्यों के साथ पूरे देश में घूमते रहे, उन्होंने सभी को सनातन धर्म की म्हणता से अवगत कराया। चरमपंथी आक्रमणकारियों, पाश्चात्य विश्वासों के प्रसार और सामुदायिक मतभेदों के कारण ध्वस्त हो रहे हिंदू धर्म को उन्होंने पुनर्जीवित किया । शंकराचार्य अपने शिष्यों के साथ उन पंडितों के साथ चर्चा करते थे जो दूसरे धर्म में पलायन कर रहे थे। वे जन जन में विस्तारित झूठ का प्रतिकार कर उन्होंने उन्हें सच्चाई से आश्वस्त करते थे । इस समय के दौरान, उन्होंने श्रृंगेरी (दक्षिण), द्वारका (पश्चिम), पुरी (पूर्व), और बद्रीनाथ (उत्तर) में चार मठ स्थापित किए और उन्हें हिंदू धर्म के चार स्तंभों के रूप में खड़ा किया। आज भी इन मठों का सञ्चालन शंकराचार्य के सिधान्तो के अनुसार होता है।

शंकराचार्य द्वारा स्थापित पीठ
- श्रृंगेरी पीठ (दक्षिण)
- द्वारका पीठ (पश्चिम)
- पूरी पीठ (पूर्व)
- बद्रीनाथ पीठ (उत्तर)
शंकराचार्य ने कई पवित्र तीर्थों का भ्रमण किया और वहाँ उन्होंने देवताओं पर कई भजनों की रचना की। उन्होंने पुराने एवं चरमपथियों द्वारा ध्वस्त किये गए असंख्य मंदिरों का जीर्णोद्धार किया। उन्होंने ही गणेश पंचरत्नम स्तोत्र, भज गोविंदम, लक्ष्मी नरसिम्हा करवलम्बा स्तोत्र, कनक धरा स्तोत्रम, शिवानंद लहरी और ध्वनि लहरी जैसे कई स्तोत्र लिखे। उनके द्वारा रचित सारे स्तोत्र का उपयोग हिंदुओं के द्वारा नियमित रूप से मंत्र जप में होता है। उन्होंने सनातन हिंदू धर्म पर लगभग 108 पुस्तकें भी लिखीं।
32 वर्ष की आयु में, उन्होंने केदारनाथ और बद्रीनाथ का दौरा किया था और उन्होंने अपना भौतिक शरीर केदारनाथ में छोड़ दिया था । कहा जाता है कि आदि शंकर विचरण करते हुए केदारनाथ मंदिर के पीछे पर्वत पर गए और फिर कभी नहीं लौटे। वहां, मंदिर के पीछे, आदि शंकराचार्य की स्मृति में एक मंदिर बनाया गया है । लेकिन केरालेयम शंकर विजयम के अनुसार, यह कहा गया कि आदि शंकराचार्य ने केरल के त्रिशूर में अपने भौतिक शरीर को छोड़ दिया। उनमें से कुछ ने कहा कि उन्होंने कांची में अंतिम सांस ली और भगवान शिव के पास कैलास पहुंचे।
शंकराचार्य हमारे देश में केवल 32 वर्षों तक रहे परन्तु उन्होंने बिखरे हुए हिंदू धर्म को पुनर्जीवित किया। उन्होंने ही हिंदू धर्म की संस्कृति और परंपराओं को सही अर्थ में परिभाषित किया। उन्होंने उन सभी सनातन संस्कृति और रीति-रिवाजों को समझाया था जिनका पालन हिंदू धर्मावलम्बियों को करना चाहिए। महान शंकराचार्य आज हमारे बीच नहीं परन्तु वे अपने कर्मों तथा रचनाओं से सदा के लिए अमर हो गए हैं।